Shah alam ii biography of barack

Shah Alam II

Ali Gauhar (25 June 1728 – 19 November 1806), historically known as Shah Alam II, the eighteenth Mughal Queen, was the son of Alamgir II. Shah Alam II became the emperor of a dilapidated Mughal empire, his power was so depleted during his unknown that it led to ingenious saying in Persian, 'Sultanat-e-Shah Alam, Az Dilli te Palam' (Hindi version: सल्तनत-ए शाह आलम, अज़ दिल्ली ता पालम)[1]।, meaning, The kingdom of Shah Alam not bad from Delhi to Palam only'.

Palam is a village fashionable south Delhi, near Indira Solon International Airport.

Shah Alam famous many invasions, mainly by nobleness then ruler of Afghanistan, Ahmed Shah Abdali, which led add up the Third Battle of Panipat in January 1761 between glory Maratha Empire, who maintained edge over Mughal affairs in City and the Afghans, led near Abdali.

Shah Alam II was considered the only and earned emperor but he wasn't travelable to return to Delhi in abeyance 1772, under the protection sketch out the Maratha general Mahadaji Shinde. He is known to own fought against the British Assess India Company during the Skirmish of Buxar and surrendered in advance them.

They kept him unsavory Allahabad Fort and got haunt concessions signed by him pressure favour of the British Puff up India Company in India.

Shah Alam II also authored reward own Diwan of poems charge was known by the incognito Aftab. His poems were guided, compiled and collected by Mirza Fakhir Makin.

The Jats Immobilized Delhi

Following the collapse of honourableness Mughal Empire in the Eighteenth century, the Jat kingdom disturb Bharatpur waged many wars intrude upon the Mughals and carried scrape out numerous invasions in Mughal residence.

During one massive assault Jats overran the Mughal garrison gain Agra. They plundered the municipality and the two great sterling doors to the entrance execute the famous Taj Mahal, were uprooted from the Agra Take pains and were carried away restriction Bharatpur. Maharaja Suraj Mal's newborn, Maharaja Jawahar Singh, further long the Jat power in Yankee India and captured the district in Doab, Ballabgarh and Metropolis.

दलीप सिंह अहलावत लिखते हैं - महाराजा जवाहरसिंह ने मल्हारराव होल्कर के पास अपने राजदूत रूपराम कटारिया को भेजकर नजीब के विरुद्ध संघर्ष में उसकी सहायता मांगी। जवाहर की ओर से 25 लाख रुपये दिये जाने का वायदा करने पर अपनी 25 हजार मराठा सेना को लेकर मल्हारराव होल्कर स्वयं नजीब के विरुद्ध सहायता करने के लिए तत्पर हो गया। परन्तु मल्हारराव का प्रमुख उद्देश्य दोनों ओर से धन प्राप्त करना ही था। आवश्यक धन देकर जवाहर ने 15 हजार सिक्ख सेना को भी सहायतार्थ आमन्त्रित किया। मराठा व सिक्ख प्रत्येक सिपाही को एक रुपया प्रतिदिन जवाहर की ओर से दिया जाता था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-705


महाराजा जवाहरसिंह, अक्तूबर 1764 ई० के अन्त में, एक बड़ी भयानक हिन्दू सेना के साथ दिल्ली के दरवाजे के सामने, अपने पिता की मृत्यु के बदले में नजीबुद्दौला का सिर और पानीपत विजय के मुस्लिम प्रभाव को नष्ट करने के लिए, जा डंटा। उसके साथ उसकी 60,000 सेना और Centred तोपें थीं। इनके अतिरिक्त उसके साथ 25,000 मराठे सैनिक होल्कर की अध्यक्षता में और 15,000 घुड़सवार सिक्ख सैनिक शामिल थे जो वेतन पर थे। इस अवसर पर राजमाता किशोरी तथा फ्रांसीसी जनरल समरु भी जवाहरसिंह के साथ थे। इन दोनों का दिल्ली के इस युद्ध के संचालन में बड़ा योगदान था। राजमाता किशोरी ने लाल किले पर आक्रमण के समय अपने सैनिकों के साथ अगली पंक्ति में रहकर अद्वितीय वीरता का परिचय दिया।

नजीबुद्दौला ने दूसरे रुहेला सरदारों को मदद के लिए लिखा और अहमदशाह अब्दाली को जल्दी आ जाने की सूचना दी।

महाराजा जवाहरसिंह ने नजीबुद्दौला को बाहर निकलकर लड़ने के लिए ललकारा। अफगानों को बाहर निकलने का मौका देने के लिए अपनी सेना को 5-6 कोस पीछे को हटा लिया। 15 नवम्बर, 1764 को नजीबुद्दौला अफगानों के साथ बाहर निकला। जाट भूखे भेड़ियों के समान अफगानों पर टूट पड़े। उन्होंने अफगानों को शहर में घुसा दिया। महाराजा जवाहरसिंह ने होल्कर की सेना को देहली के उत्तर में, सिख सेना को उत्तर पश्चिम में, बाकी को देहली दरवाजे व अजमेरी दरवाजे पर नियुक्त कर दिया और स्वयं ने कुछ सेना के साथ यमुना पार करके शाहदरा को लूट लिया। इस लड़ाई में महाराज जवाहरसिंह की मदद के लिए हरयाणा, देहली और यू० पी० के जाट प्रत्येक घर से, जेळी, लाठी, बल्लम, भाले आदि लेकर शरीक हुए थे जिन्होंने शत्रु से युद्ध किया और देहली को लूटा। जाटों की 17 नवम्बर की तोपों की लड़ाई से नजीब खां की सेनायें मैदान छोड़कर किले में घुस गईं। अब किले और शहर पर गोले पड़ने शुरु हुए। तीन महीने तक जाट, अफगानों के नाक में दम करते रहे।

4 फरवरी, 1765 को सब्जी मण्डी और पशुओं के मेला लगने के ऊंचे स्थान से अफगानों ने सिख और जाटों पर सख्त फायर शुरु कर दिया। किन्तु जाट गोलियों की कुछ भी परवाह न करते हुए अफ़गानों के दल में घुस गये। विवश होकर अफ़गान फिर भाग गये। इस युद्ध में दोनों पक्षों के सैनिक बड़ी संख्या में मरे और घायल हुए। मुग़ल व अफ़गान सेनायें लालक़िले में घुस गईं और किले के दरवाजे बन्द कर लिये।

शहर की सब दुकानें बन्द हो गईं तथा जनता भूखी मरने लगी। शाही सरकार का प्रबन्ध असफल हो गया। 5 फरवरी, 1765 ई० के दिन नई एवं पुरानी दिल्ली की जनता भूखी मरती हुई


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-706


जाट कैम्प में भोजन मांगने के लिए घुस गई। यह नगरवासियों का जाटों के आगे आत्मसमर्पण था। इन नागरिकों की रक्षक मुस्लिम सेना तो डरती किले में घुस गई थी। जवाहरसिंह की सेना ने नजीब खान को मदद एवं अन्य सामग्री मिलने के सब रास्ते रोक दिये थे और अब्दाली के पहुंचने की कोई आशा न थी।

उधर सिक्खों को समाचार मिला कि अहमदशाह अब्दालीसिन्धु नदी को पार कर चुका है और अपनी सेना सहित लाहौर की तरफ बढ़ने वाला है। इस झूठी खबर को सुनकर, अपने पंजाब प्रदेश की रक्षार्थ, जवाहरसिंह को बिना बताये ही, सारे सिक्ख सैनिकों ने एकाएक दिल्ली से पंजाब के लिये कूच कर दिया। जवाहर के विरोधी सरदार, जो अनिच्छापूर्वक ही युद्ध में सम्मिलित हुए थे, नहीं चाहते थे कि जवाहरसिंह को सफलता मिले।

अब लालकिले पर अधिकार करने के लिए उसके भीतर घुसे हुए मुस्लिम सैनिकों को जीतना था। इसके लिए जाटों ने आक्रमण किया। जवाहरसिंह ने शाहदरा के निकट यमुना तट से तोपों के गोले लालकिले पर बरसाने शुरु कर दिये जिनसे किले एवं शत्रु को काफी हानि पहुंची। दूसरी ओर जाट सेना इस किले के दरवाजों को तोड़कर अन्दर घुसने का प्रयत्न कर रही थी। परन्तु किले के बन्द दरवाजे के किवाड़ों पर लम्बे-लम्बे नोकदार बाहर को उभरे हुए लोहे के मजबूत भाले लगे हुए थे, जो हाथी की टक्कर से टूट सकते थे। किन्तु हाथी इन भालों से डरकर उल्टे हट गये। यह कार्य बिना देरी किये करना था। अतः और साधन न मिलने पर खूंटेल (कुन्तल)) गोत्र का जाट पुष्कर सिंह (पाखरिया) वीर योद्धा अपनी छाती किवाड़ों के भालों के साथ लगाकर खड़ा हो गया और पीलवान से कहकर हाथी की टक्कर अपनी कमर पर मरवा ली। दरवाजा तो टूटकर खुल गया परन्तु वीर योद्धा पुष्करसिंह वहीं पर वीरगति को प्राप्त हो गया।

इस अमर बलिदान से अजेय दुर्ग जीत लिया गया। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि यह बलिदान रानी किशोरी के भाई तथा जवाहरसिंह के मामा बलराम ने दिया था, जो कि असत्य बात है। क्योंकि दिल्ली विजय के बाद जवाहरसिंह ने इस बलराम को बन्दी बना लिया था। इससे लज्जित होकर बलराम ने कारागृह में ही आत्महत्या कर ली यह घटना अगले पृष्ठों पर लिखी जायेगी।

लालकिले का दरवाजा टूटते ही जाट सेना किले के अन्दर घुस गई और अनेक शाही सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया तथा किले की खूब लूटमार की। उधर दिल्ली नगर को भी जाटों ने बुरी तरह से लूट लिया। नगर त्राहि-त्राहि कर उठा। शाही सेना को साधनहीन बना दिया गया तथा वह भयभीत होकर साहस छोड़ बैठी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-707


मल्हारराव होल्कर का विश्वासघात

महाराजा जवाहरसिंह ने अपने साथी मल्हारराव होल्कर से आग्रह किया था कि वह शत्रु पर आक्रमण करने में सहायता दे। परन्तु होल्कर, जवाहरसिंह की सेना से बहुत पीछे ठहरा रहा, आगे को नहीं बढ़ा। क्योंकि उसने नजीब खान से भी धन प्राप्त करके उसकी रक्षा का वचन दे दिया था। वह नहीं चाहता था कि नजीब पराजित हो जाये तथा दिल्ली पर जवाहरसिंह का अधिकार हो जाये। उसकी नीति यही थी कि जाटों से अधिकाधिक धन प्राप्त कर लेने के साथ ही उनकी शक्ति भी कम करे।

अब नजीब खान ने जाटों से भयभीत होकर उनके सामने आत्मसमर्पण करना चाहा। जब जवाहरसिंह को पूर्ण विजय मिलने को ही थी, तो उनके नमकहराम दोस्त मल्हारराव होल्कर ने जवाहरसिंह के विरुद्ध नजीब खान का पक्ष ले लिया। उसने नजीब को आत्म-समर्पण की बजाय जाट राजा से सन्धि करने को कहा। इस तरह से होल्कर ने जवाहर की आशाओं पर पानी फेर दिया। फादर वैण्डल लिखते हैं कि “मल्हारराव ने बड़ी लापरवाही और खुल्ल्म-खुल्ला नजीब खान की तरफदारी की। ऐसे समय पर जबकि रुहेले बिना किसी शर्त के आत्म-समर्पण करने ही वाले थे, उसने तमाम मामलों को बिगाड़ दिया। महाराजा जवाहर को विवश होकर सन्धि की स्वीकृति देनी पड़ी।” (French M.S.

59)। अब नजीब खान ने मल्हारराव होल्कर से मिलकर जवाहरसिंह के साथ सन्धि करने की बातचीत शुरु की। इन बातचीतों में नजीब की ओर से सुजान मिश्र, राजा चेतराम, तेजराम कोठारी और नवाब जाब्ता खान; तथा जवाहरसिंह की ओर से रूपराम कटारिया और गंगाधर तांत्या भी शामिल थे। नजीबुद्दौला ने अपने दूतों द्वारा सन्धि-पत्र जवाहरसिंह के पास भेजा। जवाहरसिंह ने उत्तर दिया कि “निर्णय युद्ध में ही होगा, मैं नजीबुद्दौला का सिर चाहता हूँ।” इसके पश्चात् 9 फरवरी, 1765 ई० को नजीबुद्दौला अपने साथी मल्हारराव होल्कर को साथ लेकर शाहदरा कैम्प में जवाहरसिंह से मिला। होल्कर ने जवाहरसिंह को इस शर्त पर मना लिया कि शहजादी का डोला और युद्ध का सब खर्च नजीबुद्दौला के सिर है, आप स्वीकार कर लीजिए। सन्धि स्वीकार कर ली गई। इसके अनुसार नजीबुद्दौला ने सम्राट् की ओर से जवाहरसिंह को 60 लाख रुपये और शाह आलम द्वितीय सम्राट् की शहजादी का डोला दे दिया। यह दुर्भाग्य था कि जवाहरसिंह दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर सम्राट् घोषित होने ही वाला था किन्तु लाचार होकर उसे यह सन्धि करनी पड़ी क्योंकि सिक्ख सेना के दिल्ली से चले जाने तथा मल्हारराव के नजीब की ओर हो जाने से जवाहरसिंह की सैन्यशक्ति काफी कम हो गई। वह यह भी जानता था कि मेरी अकेली जाट सेना को शाही एवं मराठा सेना को जीतने में काफी कठिनाइयां आयेंगी। अतः अप्रसन्न होते हुए भी उसने सन्धि की यह शर्त मान ली। यद्यपि दिल्ली के सिंहासन पर जाटों का अधिकार न होने पाया किन्तु उन्होंने दिल्ली नगर एवं लालकिले को अवश्य ही जीत लिया था। इससे भारत में जाटों की शक्ति का सितारा सबसे ऊंचा हो गया।

फरवरी 12, 1765 ई० को जवाहरसिंह दिल्ली का घेरा उठाकर अपनी समस्त सेना के साथ


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-708


दिल्ली से पांच मील दक्षिण में स्थित ओखला के लिए रवाना हुआ। फरवरी 15, 1765 ई० को विश्वासघाती मल्हारराव होल्कर नजीबुद्दौला से मिला, तब उसे वहां एक हाथी, दो घोड़े, जवाहरात से भरी नौ तस्तरियां भेंट की गईं और Cxx खिलअतें (पोशाकें) उसके साथियों के लिए प्रदान कीं। फरवरी 16, 1765 ई० को जाब्ता खान ने जवाहरसिंह से ओखला में भेंट की और उसे मुगल शहजादे की तरफ से एक हाथी, घोड़ा और खिलअत भेंट की।

महाराजा जवाहरसिंह, मल्हारराव से खुनस मानते हुए डीग को लौट आए। देहली की लड़ाई में उनको लूट में बहुत से जवाहरात और कीमती सामान हाथ लगे। ‘अष्टधाती’ नाम का दरवाजा जिसे अकबर के मुग़ल सैनिक चित्तौड़ के किले से लाये थे, उन्हें लाल किले से उतरवाकर, जवाहरसिंह ने भरतपुर पहुंचाया, जो आज भी भरतपुर के किले में चढ़े हुए देखे जा सकते हैं। दिल्ली लाल किले से लाया हुआ संगमरमर का सिंहासन डीग के किले में मौजूद है। भरतपुर के देहातों में आज भी ऐसी चीजें पाई जाती हैं जिन्हें वे देहली की लूट से लाया हुआ बतलाते हैं।

जाटों में दिल्लीवारे की लूट नाम की एक कहावत भी प्रचलित है। दिल्ली से डीग आते समय महाराजा जवाहरसिंह ने मार्ग में नव मुस्लिम जाटों को शुद्ध करके हिन्दू बनाया। वे जाट आज तक भी हिन्दू हैं। महाराजा सवाई जवाहरसिंह भारतेन्द्र की पदवी धारण करके गद्दी पर बैठा। महाराजा जवाहरसिंह ने उस शहजादी को अपने सेनापति फ्रांसीसी कप्तान समरू को दे दिया जो उसकी बेगम बनी, जिसने दिल्ली मुग़लराज्य के बड़े-बड़े राजनीतिक कार्य सिद्ध किए। दिल्ली के इस युद्ध के समय जवाहरसिंह के सेनापति बलराम मुग़ल वंश की कई बेगमों को अपने साथ डीग ले आए थे। ब्रज में एक कहावत प्रसिद्ध है कि पाले पड़ी बलराम के ठाड़े मटर चबाय[2]

External Links

References